Tuesday, February 19, 2013

प्रकृति में पंचीकरण

भारतीय दर्शन में "पाँच" संख्या का बड़ा महत्व है। प्राकृतिक संरचना के सन्दर्भ में, मानव शरीर और प्रकृति के अंतर्संबंध में पंचीकरण के समीकरण को समझने का प्रयास किया जाए।

१. पाँच तत्व- १.पृथ्वी २.जल ३.अग्नि ४.वायु  और ५.आकाश

२. इन पाँचों तत्वों की पाँच तन्मात्राएँ- १.गंध २.रस ३.रूप ४.स्पर्श और ५.शब्द

३. इन पाँचों तन्मात्राओं की उपभोक्ता हमारी पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ- १. नाक २. जीभ ३. आँख ४ त्वचा और ५. कान

अब उपर्युक्त पंचीकरण की अन्तर्यान्त्रिकी को समझा जाए। प्रथम पाँच तत्व आपस में मिल कर प्रकृति का निर्माण करते हैं। इन्ही पाँचों तत्वों के संयोग से हमारा शरीर भी बना है। शरीर अपने पोषण और संवर्द्धन के लिए बाह्य प्रकृति से इन्ही पाँचों को ग्रहण करता है, लेकिन अपने शुद्ध रूप में ये तत्व हमारे शरीर द्वारा न तो ग्रहणीय हैं न ही पचनीय। हमारी शारीरिक संरचना इन तत्वों को मात्र उनके गुण (तन्मात्रा) रूप में ही ग्रहण करने में सक्षम है। तत्वों के गुण (तन्मात्रा), यानि पृथ्वी तत्व का गुण गंध, जल तत्व का रस, अग्नि तत्व का रूप, वायु तत्व का स्पर्श और आकाश तत्व का शब्द। तत्वों के ये गुण अब हमारे शरीर-यन्त्र द्वारा उपभोग्य हैं। कैसे? हमारी पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ इन पाँच तन्मात्राओं की उपभोक्ता हैं। सम्पूर्ण चक्र इस प्रकार बनता है-

      तत्व                        तन्मात्रा                  उपभोक्ता इन्द्रिय

१,   पृथ्वी                        गंध                                  नाक

२.  जल.                          रस                                   जीभ
       
३.  अग्नि                       रूप                                   आँखें

४.   वायु                         स्पर्श                                 त्वचा

५.  आकाश                    शब्द                                   कान
 
-पवन श्री

Thursday, February 07, 2013

वाणी के चार स्तर

वाणी, जो हम बोलते और सुनते हैं, उसके चार स्तर होते हैं। जो शब्द हमारे मुख से बाहर निकलता है, और हमारे या औरों के कानों तक पहुँचता है, आइये देखें उसका पूरा खेल। समझने की कोशिश करें।

1. परा वाणी------- परा, वाणी का वह स्तर है जहाँ शब्द, मात्र कुछ तरंगों के रूप में जन्म लेते हैं। यहाँ शब्द का कोई स्पष्ट स्वरुप नहीं होता। मात्र कुछ तरंगें, जिनके स्फुरण को सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है। लगता है कि भीतर कुछ हुआ, लेकिन क्या हुआ? कुछ पता नहीं।

2. पश्यन्ति------- परा स्तर में जन्मी अमूर्त तरंगें जब कुछ स्पष्ट होने लगती हैं, तो बोलने वाला उसे अपने अंतर्मन में देख पाने लगता है। पश्यन्ति के स्तर पर ही शब्द अपना आकार ग्रहण करता है। परा की अस्पष्ट और निराकार तरंगों का भौतिक अस्तित्व वक्ता के अनुभव में आ जाता है।

3. मध्यमा------- मध्यमा में वह शब्द, जो उच्चरित होने वाला है, जो परा में मात्र कुछ निराकार तरंगों और पश्यन्ति में सिर्फ अपनी  भौतिक उपस्थिति का अनुभव मात्र दे रहा था, अब एक निश्चित ज्यामितीय आकार ग्रहण कर लेता है। उच्चरित होने वाले शब्द के इसी ज्यामितीय आकार के अनुरूप वक्ता के स्वर-यंत्र अपना भी आकार बनाते हैं। स्वर-यन्त्र से तात्पर्य है, गला, मूर्धा, तालु, जीभ, दाँत और होंठ। अपने निश्चित ज्यामितीय आकार के अनुरूप शब्द विशेष, गले, मूर्धा, तालु, जीभ और दाँतों से टकराता हुआ बाहर निकलने के पूर्व अपने अंतिम पड़ाव, होठों तक पहुँचता है। शब्द की यह सारी यात्रा वाणी के जिस स्तर पर घटित होती है, वही है, मध्यमा।

4. बैखरी------- बैखरी  के बारे में विशेष क्या कहना है? वाणी के इस स्तर से तो सबका परिचय है ही। वही, जो हम सब लोग बोलते और सुनते रहते हैं। जो वाणी, जो शब्द हमारे होठों से बाहर निकल कर, ब्रह्माण्ड में बिखर जाता है।
-पवन श्री