Thursday, October 25, 2012

चेतना की सात अवस्थाएँ

1. जागृति ---- ठीक-ठीक वर्तमान में रहना ही चेतना की जागृत अवस्था है।
जब हम भविष्य की कोई योजना बना रहे होते हैं, तो हम कल्पना-लोक में होते हैं। कल्पना का यह लोक यथार्थ नहीं होता। यह एक प्रकार का स्वप्न-लोक ही है। जब हम अतीत की किसी यद् में खोए हुए रहते हैं, तो हम स्मृति-लोक में होते हैं। यह भी एक दूसरे प्रकार का स्वप्न-लोक है।
तो, वर्तमान में रहना ही, ठीक-ठीक वर्तमान में रहना ही चेतना की जागृत अवस्था है।

2. स्वप्न------ स्वप्न की चेतना एक घाल-मेली चेतना है।
जागृति और निद्रा के बीच की  अवस्था, थोड़े -थोड़े जागे, थोड़े -थोड़े सोए से। अस्पष्ट अनुभवों का घाल-मेल रहता है।

3. सुषुप्ति-----  सुषुप्ति की चेतना निष्क्रिय अवस्था है 
चेतना की यह अवस्था हमारी इन्द्रियों के विश्राम की अवस्था है। इस अवस्था में हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ और हमारी कर्मेन्द्रियाँ अपनी सामान्य गतिविधि को रोक कर विश्राम में चली जाती हैं। यह अवस्था सुख-दुःख के अनुभवों से मुक्त होती है। किसी प्रकार के कष्ट या किसी प्रकार की पीड़ा का अनुभव नहीं होता। इस अवस्था में न तो क्रिया होती है, न क्रिया की संभावना।

4. तुरीय----- तुरीय का अर्थ होता है "चौथी"।
चेतना की चौथी अवस्था को तुरीय चेतना कहते हैं। इसका कोई गुण नहीं होने के कारण इसका कोई नाम नहीं है। इसके बारे में कुछ कहने की सुविधा के लिए इसकी संख्या से संबोधित कर लेते हैं। नाम होगा, तो गुण होगा नाम होगा तो रूप भी होगा। चेतना की इस अवस्था का न तो कोई गुण है न ही कोई रूप।यह निर्गुण है, निराकार है। यह सिनेमा के सफ़ेद पर्दे जैसी है। जैसे सिनेमा के पर्दे पर प्रोजेक्टर से आप जो कुछ भी प्रोजेक्ट करो, पर्दा उसे हू-ब-हू प्रक्षेपित कर देता है। ठीक उसी तरह जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति आदि चेतनाएँ तुरीय के पर्दे पर ही घटित होती हैं, और जैसी घटित होती हैं, तुरीय चेतना उन्हें हू-ब-हू, हमारे अनुभव को प्रक्षेपित कर देती है। यह आधार-चेतना है। इसे समाधि की चेतना भी कहते हैं। यहीं से शुरू होती है हमारी आध्यात्मिक यात्रा।

5. तुरीयातीत--------चेतना की पाँचवी अवस्था  : तुरीय के बाद वाली
यह अवस्था जागृत, स्वप्ना, सुषुप्ति आदि दैनिक व्यवहार में आने वाली चेतनाओं में तुरीय का अनुभव स्थाई हो जाने के बाद आती है। चेतना की इसी अवस्था को प्राप्त व्यक्ति को योगी या योगस्थ कहा जाता है। कर्म-प्रधान जीवन के लिए चेतना की यह अवस्था सर्वाधिक उपयोगी अवस्था है। इस अवस्था में अधिष्ठित व्यक्ति निरंतर कर्म करते हुए भी थकता नहीं। सर्वोच्च प्रभावी और अथक कर्म इसी अवस्था में संभव हो पाता है। योगेश्वर श्री कृष्ण ने अपने शिष्य अर्जुन को इसी अवस्था में कर्म करने का उपदेश करते हुए कहा था "योगस्थः कुरु कर्मणि" योग में स्थित हो कर कर्म करो! इस अवस्था में काम और आराम एक ही बिंदु पर मिल जाते हैं। काम और आराम एक साथ हो जाए तो आदमी थके ही क्यों? अध्यात्म की भाषा में समझें तो कहेंगे कि "कर्म तो होगा परन्तु संस्कार नहीं बनेगा।" इस अवस्था को प्राप्त कर लिया, तो हो गए न जीवन रहते जीवन-मुक्त। चेतना की तुरीयातीत अवस्था को ही सहज-समाधि भी कहते हैं।

6. भगवत चेतना------- बस मैं और तुम वाली चेतना।
चेतना की इस अवस्था में संसार लुप्त हो जाता है, बस भक्त और भगवान शेष रह जाते हैं। चेतना की इसी अवस्था में वास्तविक भक्ति का उदय होता है। भक्त को सारा संसार भगवन-मय ही दिखाई पड़ने लगता है। इसी अवस्था को प्राप्त कर मीरा ने कहा था "जित देखौं तित श्याम-मई है"। तुरीयातीत चेतना अवस्था में सभी सांसारिक कर्तव्य पूर्ण कर लेने के बाद भगवत चेतना की अवस्था बिना किसी साधना के प्राप्त हो जाती है। इसके बाद का विकास सहज, स्वाभाविक और निस्प्रयास हो जाता है।

7. ब्राह्मी-चेतना------- एकत्व की चेतना 
चेतना की इस अवस्था में भक्त और भगवन का भेद भी ख़त्म हो जाता है। दोनों मिल कर एक ही हो जाते हैं। इस अवस्था में भेद-दृष्टि का लोप हो जाता है। इसी अवस्था में साधक कहता है "अहम् ब्रह्मास्मि" मैं ही ब्रह्म हूँ।

चेतना के इस विकास-क्रम के सन्दर्भ में कबीर साहब ने कहा-

लाली मेरे लाल की जित देखों तित लाल 
लाली देखन मैं गई ,मैं भी हो गई लाल

-पवन श्री

Wednesday, October 10, 2012

चेतना : Consciousness

चेतना, ....रंग-हीन, गंध-हीन, स्वाद-हीन, रूप -हीन, वह ऊर्जा है; जिसकी उपस्थिति में समस्त भूत-जगत् क्रियाशील होता है और जिसकी अनुपस्थिति से सब कुछ निष्क्रिय हो जाता है। चेतना की उपस्थिति में ही हमारी पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ, आँख, नाक, कान, जीभ और त्वचा समस्त भूत-जगत् की सूचनाएँ हम तक पहुँचाने में सक्षम होती हैं और चेतना-शून्य अवस्था में अपनी भौतिक अवस्था में उपस्थित रहते हुए भी कुछ नहीं कर पातीं। समझने के लिए हम बिजली के करंट का उदाहरण ले सकते हैं। जैसे, करंट की उपस्थिति में ही समस्त विद्युत-चालित उपकरण सक्रिय होते हैं और इसकी अनुपस्थिति में किसी काम के नहीं होते, ठीक वही स्थिति चेतना की भी है। जैसे, करंट, बल्ब में पहुँच कर प्रकाश, फ्रिज में पहुँच कर ठंडापन, हीटर में पहुँच कर गर्मी और पंखे में पहुँच कर हवा का रूप ले लेता है, वैसे ही चेतना आँख को देखने, नाक को सूंघने, कान को सुनने, जीभ को स्वाद लेने और त्वचा को स्पर्श की अनुभूति आदि सूचनाएँ ग्रहण कर पाने के लिए सक्षम बनाती है।

चेतना की अवस्थाएँ

आध्यात्म -विज्ञान के अनुसार चेतना की सात अवस्थाएँ होती हैं-
  1. जागृत
  2. स्वप्न 
  3. सुषुप्ति 
  4. तुरीय 
  5. तुरीयातीत 
  6. भगवत्
  7. ब्राह्मी  
आगे हम चेतना की उपर्युक्त सातों अवस्थाओं पर चर्चा करेंगे।
-पवन श्री

Thursday, September 27, 2012

ध्यानम : आज का युग-योग

महर्षि पतंजली ने अष्टांग योग का अनुशासन  बताया है-
  1. यम
  2. नियम
  3. आसन
  4. प्राणायाम
  5. प्रत्याहार
  6. ध्यान
  7. धारणा
  8. समाधि
सामान्यतया हम योग के इन आठ अंगों को योग के आठ सोपान समझ लेते हैं। इससे बहुत गड़बड़ हो जाती है। अंग सभी एक साथ होते हैं, जबकि सोपान एक के बाद एक। अष्टांग को अष्ट-सोपान मानने पर ऐसा होगा कि योग साधने के लिए हमें क्रमवार एक-एक सोपान को साधना पड़ेगा। ..जैसे पहले यम, फिर नियम, फिर आसन, फिर प्राणायाम, फिर प्रत्याहार, फिर ध्यान, फिर धारणा, तत्पश्चात समाधि। ....अष्टांग मानने पर यह होगा कि इन आठों में से किसी एक को साध कर सम्पूर्ण योग को साधा जा सकता है।

 ध्यान ही है आज का  युग -योग
व्यक्ति सम्पूर्ण सृष्टि और उसके पर्यावरण की एक इकाई है। वह जो कुछ भी करता है, वह पर्यावरण-सापेक्ष होता है। पर्यावरण के प्रभावों को भोगने के लिए व्यक्ति बाध्य है। हम अपने भौतिक शरीर को चाह कर भी पर्यावरण-निरपेक्ष नहीं बना सकते। ..हाँ, अपने मन को कुछ विशेष प्रकार के अभ्यासों से पहले अल्पकाल के लिए, फिर स्थाई रूप से पर्यावरण-निरपेक्ष अवश्य बना सकते हैं।
हम पहले जान चुके हैं कि ध्यान एक मानसिक क्रिया है। इसके निरंतर अभ्यास से अपने मन को पर्यावरण-निरपेक्ष बना कर पर्यावरण के अरुचिकर दुष्प्रभावों से बचा जा सकता है। हमारी साधना में पर्यावरण का प्रतिरोध न हो, तो साधना सहज और आनंद-पूर्ण हो जाती है। इसका सहजतम मार्ग है .."ध्यानम "।
-पवन श्री

Friday, September 21, 2012

मंत्र क्या है.....?

ध्यान के सन्दर्भ में, मंत्र की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। ....जानना चाहिए कि मन्त्र क्या है!
  1. मन्त्र एक शब्द है
  2. मन्त्र एक ध्वनि है
  3. ध्वनि की सूक्ष्म तरंगों के साथ मन की सूक्ष्म तरंगों की संवेदी क्रिया ही वह आधारभूत क्रिया है, जो ध्यान के दौरान घटित होती है
  4. ध्यान के सन्दर्भ में मंत्र एक सवारी है; जिस पर सवार होकर मन अपनी अंतर्मुखी यात्रा पर निकलता है।
ध्यान के सन्दर्भ में मन्त्र के बारे में आज इतना ही…!
-पवन श्री

Sunday, September 09, 2012

संस्कार और विचार

पहले यह बात हो चुकी है कि ध्यान में विचारों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। तो, यह भी जानना पड़ेगा कि विचार क्या है? .....एक मंडलाकार चक्र है ....विचार, ..कर्म ...कर्म-फल ...संस्कार ..विचार। मन में विचार आता  है। इस विचार के अनुरूप हम कर्म करते हैं। कर्म के अनुरूप कर्म-फल होता है। इन कर्म-फलों के बनते हैं संस्कार। फिर यही संस्कार होते हैं अगले विचारों के जनक। ...पुनः वही चक्र चल पड़ता है ...विचार, कर्म, कर्म-फल, संस्कार और फिर विचार। हम इसी मंडलाकार चक्र में आजीवन गोल-गोल घूमते रहते हैं।

संस्कार को समझें
हमारी इन्द्रियों द्वारा किए गए कर्म से उत्पन्न कर्म-फल की जो छाप हमारे नाड़ी -तंत्र पर बनती है, वही है संस्कार। ...यही छाप हमारी स्मृति के लिए भी उत्तरदायी होती है। हमारी स्मृति ही तो है हमारे कर्म की प्रेरणा। संदर्भित विमर्श में अभी हम संस्कार को इतना ही समझ कर आगे बढ़ें।

विचार को जानें
"ऊर्जा और प्रज्ञा के व्याघात हैं विचार! ..विचार, कल्पना नहीं हैं।" हम अक्सर ऐसा कहते हैं कि मेरे मन में एक विचार चल रहा है। ठीक कहते हैं हम। सचमुच, विचार चलते हैं ..और विचारों का चलना, विचारों का गतिशील होना, ..विचारों में ऊर्जा की उपस्थिति की सूचना देता है। ...फिर हम अगर ग़ौर से देखेंगे तो यह भी जान लेंगे कि हर विचार की अपनी एक निश्चित दिशा होती है। ..विचारों का दिशा-निर्धारण, विचारों में प्रज्ञा की उपस्थिति का सूचक है। ....अब हम यहाँ तक पहुँच चुके हैं कि "हमारे इन्द्रिय-जन्य संस्कारों से उत्पन्न ऊर्जा और प्रज्ञा के व्याघात हैं विचार।" ...ध्यान के सन्दर्भ में ..ध्यान में शामिल प्रमुख घटकों के बारे में संक्षिप्त और कामचलाऊ विमर्श कर लेने  के बाद, अब हम ध्यान के वर्ग में प्रवेश कर चुके होंगे, ऐसा मुझे लग रहा है।
-पवन श्री

Wednesday, August 29, 2012

मन का स्वभाव

"मन एव मनुष्यानाम् कारण बन्ध मोक्षयो"..मनुष्यों के बन्धन और मोक्ष दोनों का कारण मन ही है। हम समझ चुके हैं कि ध्यान एक मानसिक क्रिया है, तो मन के स्वभाव को समझ लेना ज़रूरी है। जरूरी इस लिए भी है, कि मन के स्वभाव के बारे में कुछ भ्रम प्रचलित हैं। यह कि मन का स्वभाव चंचल है। यहाँ से वहाँ भागते रहना इसका स्वभाव है, आदि। वास्तविकता इनसे उल्टी है। वास्तविकता तो यह है कि शांत और स्थिर रहना है मन का स्वभाव। तभी तो हमारा मन शांति की तलाश में भटकता है। मूल बात यह है कि "आनंद की खोज" है, मन का वास्तविक स्वभाव। चंचलता और निरंतर यहाँ से वहाँ भागते रहना उसके इसी स्वभाव का परिणाम है और आनंद की खोज मन का स्वभाव इसलिए है कि आनंद का ही परिणाम है आदमी का अस्तित्व।
ध्यान के सन्दर्भ में, ध्यान एक मानसिक क्रिया है। मन का स्वभाव है आनंद की खोज। हमारे भीतर छिपा है आनंद का असीम और अक्षय स्रोत। तो एक बार मन की यात्रा अगर अंतर्मुखी हो जाए तो फिर आगे सब कुछ अपने-आप ही होता चला जाता है। यही तो  करना है ..बस! अपने मन को उसके स्वभाव में छोड़ देना ....आगे ..."कुछ नहीं करना " ही ध्यान है।
-पवन श्री

Monday, August 27, 2012

ध्यानम् - दूसरी बात

ध्यान के सन्दर्भ में पहली बात हमने समझ ली कि, "ध्यान क्रिया है, अवस्था नहीं।" अब दूसरी बात समझने की यह है कि इस क्रिया में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में कौन-कौन शामिल रहता है?
  1. ध्यानी, यानि ध्यान करने वाला- जिसे हम व्यक्तित्व कहते हैं। उसका अधिष्ठान है, अंतःकरण -चतुष्टय। ..अंतःकरण-चतुष्टय- मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। इन्हीं चार चीज़ों को मिला कर बनता है आदमी का व्यक्तित्व। तो ध्यानी का व्यक्तित्व वह पहली चीज है, जो ध्यान की क्रिया में शामिल होती है। एक बात और यहीं समझ लेने की है कि ध्यान एक मानसिक क्रिया है। ध्यानी का शरीर रहता तो है, लेकिन ध्यान की क्रिया में उसकी प्रत्यक्ष कोई भूमिका नहीं होती। प्रत्यक्ष भूमिका तो मन की ही होती है। अतः अभी हम अन्य तीन; यानि बुद्धि, चित्त और अहंकार के स्वभावों पर चर्चा को कभी आगे के लिए स्थगित रखते हैं। हाँ, मन के स्वभाव पर चर्चा ज़रूरी है। लेकिन पहले यह जान लें कि ध्यानी के व्यक्तित्व के साथ-साथ और क्या-क्या  शामिल रहता है ध्यान की क्रिया में।
  2. विचार- ध्यान में विचारों की भूमिका ज़बरदस्त होती है।
आगे हम मन के स्वभाव और विचारों पर चर्चा करेंगे।
-पवन श्री

ध्यान को समझें

ध्यान एक क्रिया है, अवस्था नहीं। सामान्यतया हम ध्यान को अवस्था समझ लेते हैं। हम समझ लेते हैं कि मन की एकाग्रचित अवस्था ध्यान है और निराशा को प्राप्त होते हैं। हम समझ लेते हैं कि ध्यान मन की निर्विचार अवस्था का नाम है और ध्यान में जब विचारों की उथल-पुथल का अनुभव होता है, तो पुनः निराश होते हैं। कहते हैं कि ध्यान नहीं हो पा  रहा है; विचार बहुत परेशान कर रहे हैं।  जबकि वास्तविकता तो यह है कि ध्यान में सामान्य अवस्था से भी अधिक विचारों की उथल-पुथल होती है। तो सबसे पहले यह समझ लें कि ध्यान मन की निर्विचार अवस्था का नाम नहीं है। ध्यान तो वह विशिष्ट क्रिया है, जो हमारे मन को विचार बहुलता से विचार न्यूनता और अंततः निर्विचार अवस्था (समाधि ) की ओर ले जाती है।
यह पहली समझदारी है जो ध्यान में रुचि रखने वालों में होनी चाहिए। इसके बाद ध्यान का सन्दर्भ अत्यंत सहज हो जाएगा।
-पवन श्री

Saturday, August 25, 2012

|| ध्यानम् ||


मन की अंतर्मुखी यात्रा का नाम है ध्यान 
हमारी पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ, आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा बाहरी संसार की ओर खुलती हैं। मन उनके माध्यम से अपने बाहर की यात्रा में निरंतर व्यस्त रहता है। बाहरी लौकिक और बिखरे हुए संसार की यात्रा में हमारा मन निरंतर बिखरता ही रहता है। कहते हैं- "यथा दृष्टि तथा सृष्टि" जैसी हमारी दृष्टि होती है, वैसी ही यह सृष्टि  हमें दिखती है। इसी कारण तो हर व्यक्ति को यह सृष्टि अलग-अलग रूप में दिखती है। निरंतर परिवर्तनशील। हाँ! लेकिन इसी बिखरी-बिखरी दिखने वाले सृष्टि की एक अवस्था है। परम शांत, सर्वथा अपरिवर्तनशील, कहीं कोई बिखराव नहीं। हमारी ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से निरंतर जारी। हमारे मन की बहिर्मुखी यात्रा ही है हमारे बिखराव और हमारी बेचैनी का कारण। 

मन की बहिर्मुखी यात्रा से अवकाश है ध्यान 
मन का स्वभाव है आनंद की खोज। लौकिक सृष्टि के बिखरे हुए विषयों में निहित आनंद की एक सीमा है। आनंद की जितनी मात्रा जिस वस्तु या विषय में होती है, हमारा मन उतनी ही देर उस विषय या वस्तु पर ठहरता है। फिर दूसरे विषय की खोज में निकल पड़ता है। इस प्रकार हमारा मन निरंतर भागता रहता है। ...भागता ही रहता है। ...हम कामना करते हैं कि कहीं तो विश्राम मिले इस चंचल मन कोलेकिन कहाँ मिलेकैसे मिले? ...मन की इस निरंतर बहिर्मुखी यात्रा से अवकाश..

कुछ नहीं करना ही है ध्यान
यह बात सुनने में जितनी आसान लगती है, करने में उतनी ही कठिन भी लगती है। लेकिन यह सब लगने वाली बातें हैं। ..सब कुछ वैसा थोड़े ही है, जैसा लगता है। विडंबना देखिए, कठिनाई तो कुछ करने में होनी चाहिए, कुछ नहीं करने में क्या कठिनाई? लगातार कुछ न कुछ करते रहने के अभ्यासी हमारे मन को "कुछ नहीं करना" ही कठिन लगता है। ..हम निरंतर कुछ न कुछ करते ही हैं, यहाँ तक कि विश्राम भी हम "करते हैं"। "कुछ नहीं" भी हम करते ही  हैं। ....लेकिन यहाँ तो कुछ नहीं करना है- "ध्यान" ..है न मज़ेदार बात?
ध्यानम् देता है हमको यह मज़ेदार अनुभव। हमारे मन को हमारी अपनी ही अंतर्मुखी यात्रा में डाल कर।
हमारे अपने ही मन कि निरंतर की बहिर्मुखी यात्रा से अवकाश दिला कर, हमारे मन को आनंद के उस असीम और अनंत स्रोत की ओर मोड़ करजिसका अनुभव हमें दैनिक जीवन के हर छोटे-बड़े कार्यों में बना रहता है।